सोमवार, 13 अगस्त 2007

कहाँ खो गया गाँव सलोना

सन्त समीर
'कहाँ खो गया गाँव सलोना, औ उसकी नूरानी धूप' के रूप में व्यक्त शायर की वेदना के स्वर वर्तमान गाँवों की दशा पर बहुत कुछ कह जाते हैं। सचमुच, बैलों के गले की घंटियाँ अब कम सुनाई देती हैं। चौपाल सूने हो गए हैं और दिन भर का काम निबटाकर शाम की अलमस्ती में क़िस्सागोई से नई पीढ़ी को संस्कार के पाठ पढ़ाना भी लोग भूल से गए हैं। सदियों के अनुभव समेटे सिर्फ़ कुछ शब्दों के 'मसल' सुनाने की बुजुर्ग़ों की लाग-डाँट भी अब गाहे-बगाहे ही सुनाई देती है। रोम-रोम में वीरता के भाव भरने वाले 'आल्ह-खण्ड' की गूँज और 'बिरहा' की स्वरलहरियाँ तो नई पीढ़ी के लिए जैसे अनजानी ही हैं। पनघट पर चहल-पहल नहीं रही तो 'पद-अपद' सुनाने की महिलाओं की जुगलबंदी भी नहीं सुनाई देती। खेत-खलिहान की धूल-मिट्टी में कंचे और कौड़ियाँ खेलते बच्चों की किलकारियाँ तक बस्ते के बोझ तले जैसे दब सी गई हैं।
आज के गाँवों की तस्वीर कुछ ऐसी ही है। नए विज्ञान और तकनीकी के पहियों से बनी आधुनिक विकास की गाड़ी गाँवों की ओर बहुत कुछ लेकर आई है तो बहुत कुछ इसने गाँवों से बाहर भी कर दिया है। इस विकास के चलते गाँवों में सुविधाओं के कुछ छींटे यदि पड़े हैं तो यहाँ की दयालुता, नि:स्वार्थता, निश्ंचितता, अपनापन तथा सामूहिकता के भाव के अगाध भंडार से बहुत कुछ खाली भी हो गया है। विकास की आधुनिक बयार ने गाँव के लोगों की लालसाएं इतनी तीव्रता से जगा दी हैं कि उनकी सुकून भरी ज़िन्दगी में खलबली मच गई है। अपने हिस्से की आधी रोटी से किसी की भूख मिटा देने में सुकून महसूस करने के कभी के संस्कार अब दूसरों का हिस्सा हड़प जाने के स्वार्थ में बदल गए हैं। मनोरंजन के साधन के नाम पर घर-घर में पहुँचते जा रहे टेलीविजन ने मनोरंजन के असली साधनों को निगल लिया है। आज के सूचना माध्यमों ने गाँव के बच्चों को जिस दुनिया में पहुँचा दिया है वहाँ अब वे गिल्ली-डंडा, कबड्डी, खो-खो और सुटुर्र जैसे देशी और मुफ्त के खेल खेलना भूल गए हैं और महँगे बैट, बाल और पैड के साथ अंग्रेजी क्रिकेट की बैटिंग और फील्ंडिग में रम चुके हैं। इसके अलावा टेलीविजन जैसे माध्यमों ने गाँव के लोगों में जागरूकता तो बढ़ाई है, पर उपभोक्तावाद और शहरी जीवन-शैली के प्रति ललक जगाने का काम कहीं ज्यादा किया है।
एक समय था जब नए साधनों से दूर रहते हुए अपनी कठिन ज़िन्दगी में भी गाँव के लोग एक दूसरे के सुख-दु:ख का ख़याल करके चलते थे। तब गाँव का धनी आदमी भी ग़रीब बड़े-बुज़ुर्गों को काका, चाचा या बाबा का ही सम्मान देता हुआ दिखाई देता था और ग़रीब से ग़रीब आदमी भी 'पद' (उचित) की बात पर धनी आदमी को फटकार लगा सकता था। गाँव के लोगों में अपनत्व था, तो धन-सम्पत्तिा की वजह से कोई भावनात्मक दूरी नहीं पैदा हो सकती थी। लेकिन इस दौर में उपभोक्तावाद ने ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं जुटा लेने की मानसिकता पैदा कर दी तो गाँव के लोग भी त्याग-संयम की भाषा भूलकर स्वार्थ साधने में लग गए हैं। स्वार्थ के भोगवादी रूप ने पड़ोसियों के साथ आत्मीय संबंधों में दरार पैदा कर दी है। व्यवहार में काइयाँपन और बोल-बात-मुस्कराहटों में शातिरपना गहरे तक घुल गया है। अब गाँव के सीधे-सादे आदमी को भी यह चिन्ता सताती रहती है कि कहीं पड़ोसी उससे आगे न बढ़ जाय। साधन-सम्पन्नता की इस भागमभाग में जिसके पास कुछ इकट्ठा हो जाता है उसके तो जैसे पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ते। इस दौर का धन-कुबेर गाँव में रहते हुए भी गाँव से कट जाता है। उसका आदर्श टेलीविजन और फ़िल्मों में दिखने वाली शहरी जीवनशैली होती है और वह गाँव के अपने घर को भी वैसे ही सुविधासम्पन्न बनाना चाहता है। कुछ बरस पहले तक हाल यह था कि गाँव के साधारण और बहुत धनी लोगों के रहन-सहन में कोई बहुत फ़र्क नहीं हुआ करता था, लेकिन अब तो धन की आमद होते ही पहनावे तक में फ़र्क दिखाई देने लगता है।
आधुनिक जीवनशैली की बनावटी ज़रूरतों ने एक ऐसा बनावटी तनाव पैदा कर दिया है कि गाँवों की अलमस्ती ग़ायब हो गई है। कभी-कभी बचपन के कुछ दृश्य याद आते हैं। तब गन्ने की पिराई बैलों से ही होती थी। बड़ा गाँव हुआ तो टोले बँट जाते थे, नहीं तो छोटे गाँवों में एक कोल्हू ही काफ़ी होता था। जैसे-जैसे जिसके पास ईंधन की तैयारी होती, वैसे-वैसे बारी-बारी से एक-एक घर की गन्ने की पिराई की जाती। हर घर से लोग गन्ना छिलाई के लिए शामिल होते। गन्ने की पिराई चाहे जिसकी हो, पर बैल भी सबके ही बारी-बारी से कोल्हू में चलाये जाते। इधर कोल्हू से रस तैयार होता और उधर गुल्लौर से धुऑं उठना शुरू हो जाता। शाम ढलते-ढलते गाँव के क्या बूढ़े क्या बच्चे, सब ही सामूहिक बतकही की चौपाल सजाने गुल्लौर में जमा हो जाते। जाड़े के दिन तो ख़ैर होते ही थे; सो, गाँव के बच्चे आलू और ताज़ी मटर की फलियाँ भूनने और 'लुका-छिपी' खेलने में मगन रहते। और यदि कभी कोई बाबा या दादा से कहानियाँ सुनने की फ़रमाइश कर बैठता तो माहौल की रौनक़ ही कुछ और हो जाती। 'क़िस्सा तोता-मैना', 'रानी सारंगा-सदाबृज', 'बाला लखंदर', 'आल्हा-ऊदल', 'कौआ-हकनी' जैसी ढेरों कहानियाँ मुझे इसी तरह के माहौल में सुनने को मिली थीं और इनके कई सार्थक संस्कारों को मैं अपने ऊपर अभी तक महसूस करता हूँ।
अजब क़िस्सागोई थी वह। कहानियाँ ख़ास अंदाज़ और लय में सुनाई जाती थीं। यदि होली का त्योहार आने में एकाध माह बाक़ी हुआ तो किसी-किसी दिन ढोल की थाप पर फागुन के गीतों की महफ़िल भी जम जाती। गुड़ की हर नई 'पाग' (पाक) का स्वाद लेते हुए गीत और क़िस्सागोई के बीच कब पहर भर रात बीत गई और आख़िरी 'पाग' उतरने के साथ काम ख़त्म हुआ, यह पता ही नहीं चलता था।
ऐसे हुआ करते थे बचपन के वे दिन, जब किसी एक घर पर आ पड़ा काम का बोझ भी पूरे गाँव के लिए मनोरंजन का सामूहिक उत्सव बन जाता था। तीज-त्योहार से लेकर शादी-ब्याह तक हर किसी मौक़े पर गाँव के लोगों का आपसी मनमुटाव भुलाकर एकजुट हो जाना एक विराट सांस्कृतिक विरासत की ही पहचान है, लेकिन दुर्भाग्य से अब हमारे गाँवों की सांस्कृतिक पहचान और परम्पराएं अपनी अस्मिता खोने लगी हैं।
कुछेक दशक पहले ही गाँवों में आपसी सामंजस्य इतना था कि आपस के झगड़े गाँव की पंचायत के स्तर पर सुलझ जाते थे। तब पंचों का फ़ैसला ही सिर-माथे होता था। मूल्यबोध इतना गहरा था कि पंच चुन लिए जाने के बाद अपने विरोधी को भी न्याय दिलाना आत्मगौरव का अहसास दिलाता था। मुंशी प्रेमचन्द की 'पंचपरमेश्वर' कहानी वास्तव में तब के गाँवों में प्रवहमान उदात्ताभावों से बेहतर परिचय कराती है। लेकिन अब के गाँवों में स्वार्थ इतने गहरे तक उतर आया है कि नैतिकता मज़ाक की चीज़ बनने लगी हैं। इस सबके चलते न अब वैसे पंच रहे और न वैसी पंचायत। नतीजा यह हो रहा है कि छोटे-छोटे विवादों पर भी बन्दूकें तन जाती हैं और मामला कोर्ट-कचहरी से नीचे नहीं सुलझता।
आज के गाँवों में राजनीतिक जागरूकता तो आई है, पर उसके साथ वैमनस्यता का एक नया माहौल भी पैदा हो गया है। अब राजनीतिक पार्टियाँ सम्प्रदायों के मानिन्द ही दिखने लगी हैं। पहले लोग भले ही कम जागरूक थे, पर इतना चरित्र तो था कि चुनाव का समय आने पर एकर् कत्ताव्यभाव के साथ वोट डालते जाते थे। गाँव की महिलाएं तो समूहों में लोकगीत गाते हुए ही चुनाव केन्द्र तक पहुँचती थीं। लेकिन अब वोट देने के लिए जाते लोगों का तेवर देखकर ऐसा लगता है जैसे कि वे युध्दक्षेत्र में जा रहे हों। वैमनस्यता और स्वार्थ इतने प्रभावी हो चुके हैं कि अब दूसरे की मुसीबत में काम आने के लिए भी लोग अपने स्वार्थ के मौक़े ही ज्यादा तलाशते हैं। अंग्रेजों द्वारा इस देश को कंगाल कर दिए जाने के बाद भी अभी कुछ बरस पहले तक हमारे गाँवों में ऐसी स्थिति तो नहीं ही थी कि किसी ग़रीब को आत्महत्या करनी पड़े। तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों के बावजूद ग़रीब को रोटी देना गाँव का अमीर अपनार् कत्ताव्य मानता था। लेकिन अब एक तरफ़ अमीरी के नए टापू खड़े हो रहे हैं तो दूसरी तरफ़ ग़रीबों का जीना और मुश्किल हो रहा है; और वे, अपने दु:ख-दर्द के साथ इतने अकेले पड़ गए हैं कि आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझता।
भूले-बिसरे ठहरे हुए से अतीत को याद करते हुए और किसी फ़िल्म की तेज़ रफ्तार रील की तरह भागते वर्तमान को देखते हुए कभी-कभी ऐसा लगता है कि हतप्रभ हो उठने के अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं रह गया है। अब तो किसी के मुँह से यह सुनकर कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, मन एक बार विषाद से भर उठता है।

नास्तिक कौन!

सन्त समीर
नास्तिक-अर्थात् जो ईश्वर को न माने। यही इसका प्रचलित अर्थ है। मतलब यह कि ईश्वर में विश्वास करने वाले आस्तिक हैं भले ही वे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के हों। नास्तिक हुए जैन, बौध्द, चार्वाक; या आधुनिक साम्यवादी क़िस्म के लोग। लेकिन नास्तिकता की मूल परिभाषा कुछ और कहती है। मूल परिभाषा है-'नास्तिको वेद निन्दक:'। यानी जो वेद निन्दक हैं, वेद विरोधी हैं, वेद को अमान्य करते हैं, वे नास्तिक हैं।
ध्यान देने पर पता चलेगा कि यह प्राचीन और मूल परिभाषा ही नास्तिकता और आस्तिकता का अर्थ ज्यादा सही ढंग से व्यक्त करती है और विज्ञानवाद का प्रतिपादक भी है। 'विद्' धातु से निष्पन्न 'वेद' शब्द का मूल अर्थ है-ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद इसीलिए वेद कहे जाते हैं क्योंकि माना जाता है कि इनमें मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक मूल ज्ञान की बातें बतायीर् गई हैं। इस तरह 'नास्तिको वेद निन्दक:' का अर्थ हुआ कि जो ज्ञान का विरोध करे, ज्ञान को प्रतिष्ठा न दे, अमान्य करे वह नास्तिक है। थोड़ा और गहरे उतरें तो पता चलेगा कि ज्ञान का स्थूल रूप है- अस्तित्व, वजूद। इस संसार में जो कुछ है अस्तित्वमान है। सूक्ष्म, स्थूल असंख्य मूर्तिमान पदार्थों से लेकर र्अमूत्ता विचारों, भावनाओं तक सब कुछ अस्तित्व के ही रूप हैं। अस्तित्व भाव से ही आस्तिक निकला है। अस्तित्व का स्वीकार आस्तिकता है, अस्तित्व का नकार नास्तिकता।
जीवनविद्या के प्रवर्तक बाबा नागराज कहते हैं, इस सृष्टि का सत्य है- अस्तित्व। इस अस्तित्व को जान लिया जाय तो जीवन का मर्म समझ में आ जाएगा और हम सहज, सुन्दर जीवन जीने लगेंगे। इस तरह देखें तो अस्तित्व में आस्था रखने वाले, उसे मानने वाले आस्तिक कहे जाने चाहिए। यही विज्ञानवाद है। इस तरह यह भी स्पष्ट होता है कि ईश्वर को न मानने वाले पंथ, विचारधारा के लोग अस्तित्व को मानते हैं तो वे आस्तिक ही हैं। आज के साम्यवादी और विशेष रूप से विज्ञान को ही सब कुछ मानने वाले धुर आस्तिक हुए, क्योंकि वे आस्तित्व के या कहें 'अस्ति' भाव के पुजारी है। बल्कि देवी-देवता और भगवान में आस्था रखने वाले या धर्मभीरु लोग हो सकता है कि ज्यादा नास्तिक क़िस्म के सिध्द हों, क्योंकि ऐसा प्राय: देखा जाता है कि कई तरह के धार्मिक विश्वास ज्ञान का, संसार के यथार्थ सत्य या अस्तित्व का विरोध करते हैं। हो सकता है कई तरह की धार्मिक आस्थाएं सिर्फ़ रूढ़ियाँ हों और सत्य से उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता ही न हो।
जीवन-व्यवहार में अस्तित्व भाव के स्वीकार का अर्थ है जैसे हमारा अस्तित्व वैसे ही हमसे इतर प्राणियों का भी अस्तित्व। इससे जीवन के प्रति सम्मान भाव पैदा होता है और समस्त जीव जगत के सुख-दु:ख के अहसास का यथार्थ भाव प्रबल बनता है। अस्तित्व मो मान्य करने से ही सृष्टि के विविध पदार्थों के यथोचित उपयोग में लेने और प्रकृति-सम्मत जीवन जीने का विज्ञान-भाव पैदा होता है। यदि हम सृष्टि को जैसा चलना चाहिए वैसा चलने देने में सहयोगी हैं, इस संसार में अपनी भूमिका कुशलता से निभाते हैं तो सृष्टि में अस्तित्व की स्थिति का ही सम्मान करते हैं; और यदि, हम प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं, सृष्टि के सुचारू रूप से संचालित होने में बाधा पहुँचाते हैं तो इसका अर्थ है कि अस्तित्व भाव की ही उपेक्षा करते है। दूसरों को दुख देना, एक तरह से दूसरों के अस्तित्व की उपेक्षा है। महावीर स्वामी ने यदि कहा कि -जियो और जीने दो- तो इसका अर्थ यही है कि सिर्फ़ हमीं हम नहीं है इस संसार में, हमसे इतर भी हमारे जैसे अस्तित्व वाले हैं, इसलिए हमारे जैसा ही जीने का हक उनका भी बनता है। इस तरह देखें तो सृष्टि में अस्तित्व को स्वीकार करना, यानि प्रकृति के साथ समरसता और सहजता में जीना ही जीने की कला है, जीवन विद्या है और यही आस्तिकता है। इस सृष्टि में जीव-जगत से लेकर जड़-जगत तक के आपसी अन्तर्संबंधों को समझ लेना और अन्योन्याश्रितता की अनिवार्यता को हृदयंगम करके जीवन-व्यवहार चलाना अस्तित्व का स्वीकार है, सम्मान है, जीवन का ज्ञान है, आस्तिकता है। कुल निहितार्थ यही है कि अच्छे काम करने वाले आस्तिक हैं, भले ही वे देवी-देवताओं से दूर रहते हों और बुरे काम करने वाले, स्वयं का स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का जीवन नष्ट करने वाले नास्तिक हैं, भले ही वे भाँति-भाँति के भगवानों और देवी-देवताओं के पूजा-पाठ में दिन गुज़ार देते हों।

इस क़ैद से आज़ादी चाहिए

सन्त समीर
यह समय की पुकार है कि मुसलमान महिलाएं पर्दे से बाहर निकलें। पर्दे का मुद्दा कुछ ऐसा बन गया है कि अक्सर विवादों के केन्द्र में आ ही जाता है, पर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आधी आबादी की नियति से जुड़े इस मसले पर कभी स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकल पाता। मैं इस पर सकारात्मक या नकारात्मक कुछ कहूँ तो शायद मुसलमान भाई कह सकते हैं कि आप कृपा करके कुछ नहीं कहें तो बेहतर है, यह हमारे घर का मामला है हमीं समझ लेंगे। उनकी बात जायज़ हो सकती थी लेकिन तब जबकि सचमुच यह मामला सिर्फ़ उनके ही घर तक सीमित होता। इस मामले का असर घर के बाहर भी पड़ता है तो बाहर वाले भी सकारात्मक या नकारात्मक प्रतिक्रिया जताएंगे ही। अजान की आवाज़ पड़ोसी हिन्दुओं के कानों में पहुँचती है तो उन्हें उस पर टिप्पणी करने का हक है। इसी तरह मंदिर के घंटे-घड़ियाल और भजन की ध्वनि मुसलमानों के कानों तक पहुँचे तो उन्हें भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अधिकार है। अपने घरों में हम हिन्दू बनकर रहें या मुसलमान, लेकिन घर से बाहर सिर्फ़ आदमी बनकर निकलें, तो ही निजी विश्वासों पर की गई टिप्पणी को अनधिकार चेष्टा कह सकते हैं। किसी धर्म के अनुष्ठान और जलसे-समारोह यदि दूसरे धर्म के लोगों को भी प्रभावित करते हैं तो दूसरे धर्म के लोगों की अच्छी-बुरी प्रतिक्रियाओं को भी सुनने सहने को तैयार रहना चाहिए।
तो, इस परदा-प्रकरण पर मैं अगर कुछ कहना चाहता हूँ तो इसलिए नहीं कि मुझे किसी कौम विशेष से कोई लेना देना है। मेरा हस्तक्षेप सिर्फ़ इस वजह से है कि मैं एक मनुष्य हूँ और मानता हूँ कि धर्मों के आवरण्ा अच्छे हों या बुरे, प्रकृति की निर्मिति या मनुष्य की मूलभूत विशेषताएं नहीं हैं। ये आवरण हम देशकाल के हिसाब से ख़ुद बनाते हैं इसलिए समय के साथ इनके औचित्य-अनौचित्य की जाँच-परख भी हमें करनी ही चाहिए; अन्यथा, ये ही रूढ़ रूप धारण करने के बाद किसी समाज की तमाम अच्छाइयों को भी दबाने-ढँकने का काम करने लगते हैं।
परदे की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। मुसलमानों में यह आदमकद बुर्क़े के रूप में मज़हबी पहचान है तो हिन्दुओं में भी कई इलाक़ों में घँघट के रूप में प्रचलित है। कहते हैं कि मुहम्मद साहब ने महिलाओं की आबरू बचाने के उद्देश्य से उन्हें परदे में रहने की नसीहत दी। उस समय की स्थिति शायद ऐसी थी कि परदे ने महिलाओं को पुरुषों की बुरी नज़र से कुछ हद तक बचाया हो। हालाँकि उस स्थिति में भी मैं इसे अनुचित ही मानता हँ, क्योंकि इससे मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों के शोषण में कोई कमी तो आई नहीं, उल्टे वे अपनी हिफ़ाज़त के लिए मुखर रूप में सामने आने के बजाय कहीं गहरे मौन में चली गईं। स्त्री की सहमति-असहमति का तो कालान्तर में कोई अर्थ ही नहीं रह गया। स्त्रियों को क्या करना और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय आज भी इतना खुलापन आने के बावजूद मुल्ले-मौलवी या मर्द ही करते हैं। वैसे स्त्रियों को पैरों की जूती बनाकर रखने की महागाथाएं अन्य समूहाें-सम्प्रदायों में भी ख़ूब हैं, पर इस्लाम में स्त्री को जिस तरह संगठित फ़तवों का शिकार होना पड़ता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है। अगर कोई इमराना कुछ प्रतिरोध कर पाती है तो वह साम्प्रदायिक सोच की सहूलियत नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक खुलेपन के बढ़ते प्रभाव का परिणाम है।
मैं अपने मुसलमान मित्रों से कभी इस तरह के मुद्दों पर बातें करता हूँ तो अक्सर कुछ ऐसा तर्क सुनने को मिलता है कि परदा औरतों को मर्दों के दर्ुव्यवहार और बलात्कार जैसी घटनाओं से बचाता है। वैसे यह तर्क एकदम से बेदम भी नहीं है। आख़िर छेड़खानी और बलात्कार करने वाले भी ख़ूबसूरत जवान स्त्री को ही निशाना बनाना चाहते हैं; तो अगर, स्त्री का शरीर परदे में ढँका हो तो किसी मर्द की ऑंखों में वह चुभे, यह नौबत ही फिर कहाँ आएगी? लेकिन सवाल यह है कि नख से शिख तक परदे में रहने की नसीहत स्त्रियों के लिए ही क्यों? मर्द छुट्टा साँड़ की तरह क्यों आज़ाद रहे? लफंगई करे मर्द और जेलख़ाना औरत को, यह कहाँ का न्याय है? कई बार ऐसा भी हो सकता है कि परदे की वजह से किसी मनचले की जिज्ञासा और बढ़ जाए। यहाँ मैं वह कहानी नहीं सुनाना चाहता जिसमें कि परदे की वजह से एक मनचला ख़ूबसूरत और जवान समझकर एक बदसूरत बुढ़िया का पीछा करने लगता है। 'परदा है परदा' तो एक घटिया फ़िल्मी गाना है, पर परदे से जन्मी जिज्ञासा के चलते शायरों ने कितनी इश्क़िया शायरी लिख मारी है, इसका तो अन्दाज़ा लगा पाना भी टेढ़ा काम है। ज्यादा उचित होता कि महिलाओं को परदे में रखने के बजाय उन्हें बहादुरी सिखाई जाती। भले ही उन्हें सिखाना पड़ता कि--जो मर्द तुम्हारे साथ बुरी हरकत करने की कोशिश करे उसके सीने में छुरी भोंक दो। यूँ यह तो बात की बात है, पर हिफ़ाज़त के तमाम बहादुरी भरे तरीक़े हो सकते थे। परदा तो स्त्रियों को कायर बनाने की मर्दों की एक आयोजना का ही रूप हो सकता है और कुछ नहीं। स्त्रियों को ज़रूरत स्वस्थ शिक्षा की थी, क्योंकि भावी पीढ़ियों की निर्माता वे ही हैं। उन्हें ऐसे संस्कार देने की ज़रूरत थी कि वे आत्मविश्वास से लबालब भरी होतीं तो सुरक्षा के लिए परदे की ज़रूरत ही न पड़ती।
कहा यह भी जाता है कि परदा दूसरी तमाम चीज़ों के साथ-साथ इंसान के व्यवहार और आचरण का भी पता देता है। ठीक से देखें तो यह बहुत वाहियात तर्क है। इस तर्क में कुछ दम हो सकता था, लेकिन तब जबकि परदा करने या न करने की पूरी आज़ादी होती और परदा सदाचरण और सुशीलता का प्रतीक होता, जैसे कि आज़ादी के दिनों में खादी का वस्त्र देशभक्ति और स्वाभिमान का प्रतीक हुआ करता था। हर तरह के कपड़े पहने-ओढ़ने की पूरी आज़ादी में यदि एक स्त्री अपने विवेक से तय करके स्वेच्छापूर्वक परदा धारण करती तो उसके चरित्र और व्यवहार को लेकर किसी ख़ास रुझान का संकेत मिल सकता था, लेकिन जब पूरे स्त्री समुदाय पर परदा एक साम्प्रदायिक आदेश की तरह हो तो यह कहना एकदम बेमानी है कि परदे के भीतर की स्त्री सच्चरित्र और सुशील होगी ही। क़ुरआन की सूरा अल अहज़ाब के इस उल्लेख कि-- ''ऐ नबी! अपनी पत्नियों, पुत्रियों और ईमानवाली स्त्रियों से कह दो कि वे (जब बाहर जाएं) तो ऊपरी वस्त्र से स्वयं को ढाँक लें। यह अत्यन्त आसान है कि वे इसी प्रकार जानी जाएँ और दर्ुव्यवहार से सुरक्षित रहें और अल्लाह तो बड़ा क्षमाकारी और बड़ा ही दयालु है।'' (क़ुरआन, 33 : 59)-- को तब के समाज के हिसाब से स्त्रियों की सुरक्षा की एक ईमानदार चिन्ता मान भी लें तो भी वर्तमान में इसका कुल प्रभाव स्त्रियों के मानसिक विकास को कुंद करने वाला ही साबित हुआ है, यह हम मुस्लिम महिलाओं की दशा देखकर समझ ही सकते हैं। कुर्तुलऐन हैदर, तस्लीमा नसरीन और सानिया मिर्ज़ा जैसी महिलाएं परदे के भीतर रहकर नहीं बना करतीं।
परदे के पक्ष में इस्लामी विद्वानों के तर्कों का मुख्य निष्कर्ष यही निकलता है कि इसका सबसे बड़ा उद्देश्य महिलाओं को बलात्कार और दर्ुव्यवहार से बचाना है। लेकिन सवाल यह है कि एक तरह के बलात्कार और दर्ुव्यवहार से किंचित रक्षा करते हुए क्या स्त्री पर दूसरे क़िस्म के बलात्कार और दर्ुव्यवहार नहीं थोप दिए जाते? महिलाओं की अपनी सोच-समझ और ख़ुद को विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त करने की चाहत पर परदे की आड़ में जो कुठाराघात हो रहा है वह क्या किसी बलात्कार और दर्ुव्यवहार से कुछ कम है? मुसलमान महिलाओं के दिल से पूछिए कि क्या वे समझदार, शिक्षित नहीं बनना चाहतीं, क्या उनका मन किसी पंछी की तरह उन्मुक्त गगन में नहीं उड़ना चाहता? क्या उनकी तमन्ना इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, वकील, साहित्यकार, कलाकार बनने की नहीं होती? क्या वे पुरुषों की तरह परदे के बाहर की दुनिया खुली ऑंखों से नहीं देखना चाहतीं?
हालाँकि यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि जो पश्चिम मुसलमान स्त्रियों के परदे पर सबसे ज्यादा आपत्ति जता रहा है, वह ऐसा नहीं है कि मुसलमानों के बहुत भले की सोचता हो। पश्चिम के देश अपनी सुविधा के हिसाब से चलते हैं। परदा हटाने के उनके तर्कों में ईमानदारी और बेईमानी दोनों शामिल हैं। ईमानदारी यह है कि उनका समाज काफ़ी हद तक खुला हुआ समाज है तो हज़ारों की भीड़ में इक्का-दुक्का परदानशीन स्त्रियाँ सचमुच कई रूपों में एक असुविधाजनक कौतूहल पैदा करती हैं। उनके तर्कों की बेईमानी यह है कि इस्लामी आतंकवाद के ख़िलाफ़ मुहिम चला रहे अमरीका, इंग्लैंड मुसलमानों को नीचा दिखाने का कोई अवसर चूकना नहीं चाहते। वैसे इन सबसे परे हटकर देखें तो पिछले दिनों इंग्लैंड की एक महिला शिक्षिका के परदे पर उठा सवाल उचित ही है कि यदि आप किसी मुद्दे पर एक विद्यार्थी समूह को सम्बोधित कर रहे हों, जहाँ भाँति-भाँति के उदाहरणों और हाव-भाव के प्रदर्शन से भी विषय स्पष्ट करने की ज़रूरत पड़ती हो, तो निश्चित रूप से परदा इस काम में बाधक है और अक्सर विद्यार्थियों का ध्यान विषय से भटकाता भी है।
बहरहाल, परदे का यह मज़हबी रूप मुसलमानों में हो, हिन्दुओं में हो या दूसरे सम्प्रदायों में, उचित क़तई नहीं कहा जा सकता। राम-कृष्ण को पूजने वाले हिन्दुओं को याद रखना चाहिए कि इन युगपुरुषों के समय में परदा-प्रथा का नामोनिशान नहीं था। सीता, सावित्री, रुक्मिणी, राधा परदे में रहने वाली स्त्रियाँ नहीं थीं। गार्गी, मैत्रेयी, विश्ववारा तक कहीं किसी तरह के घूँघट का वजूद नहीं था। और जब, परदा या इस जैसी ढेरों कुरीतियाँ नहीं थीं तो ही भारत सोने की चिड़िया और दुनिया को ज्ञान बाँटने वाला विश्वगुरु कहा जा रहा था।
परदे को कोई स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। यह एक अस्वस्थ व्यवस्था है और एक अस्वस्थ व्यवस्था दूसरी तमाम अस्वस्थ व्यवस्थाओं को जन्म देती है। ये सारी अस्वस्थ व्यवस्थाएं मिलकर समाज की सकारात्मक संभावनाओं को क्षीण करती हैं। इस संदर्भ में याद रखना चाहिए कि इस्लामी क़ानून पर चलने वाले देश अपना ख़ुद का विज्ञान बहुत आगे नहीं बढ़ा सके तो इसमें बीमार मज़हबी व्यवस्थाएं ही प्रमुख कारण हैं। इस्लामी देश यदि उच्च तकनीकी और विज्ञान में लगभग पूरी तरह उधार पर निर्भर हैं तो वास्तव में उन्हें अपनी मज़हबी व्यवस्थाओं का पुनर्विश्लेषण करने की ज़रूरत है। इस कटु सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस्लामी समाज में रूढ़ मौलवियों की भरमार तो दिखाई देगी, पर दुनिया की समकालीन समझ से युक्त समाज को वैचारिक ख़ुराक देने वाले बुध्दिजीवियों का टोटा मिलेगा। यहाँ यदि मुसलमान वैज्ञानिक और बुध्दिजीवी के रूप में डॉ. अब्दुल कलाम जैसे लोगों का उदाहरण देना चाहें तो याद रखना होगा कि कलाम के सिर्फ़ नाम में ही मुसलमान तत्तव तलाशा जा सकता है; अन्यथा, उन्होंने ख़ुद को मज़हबी सोच से बहुत ऊपर उठा लिया है। कलाम अगर मुसलमानों के किसी सोद्देश्यपूर्ण कार्यक्रम में शामिल हो सकते हैं तो वे सम्प्रदायविहीन समाज की कल्पना करने वाले और कुरान-पुराण दोनों की ही ख़िलाफ़त करने वाले आर्यसमाज के सुधार कार्यक्रमों को भी खुलकर समर्थन दे सकते हैं।
परदा स्त्री के मानसिक विकास को किस हद तक बाधित करता है, इसका अहसास सेठ जमनालाल बजाज की धर्मपत्नी जानकी देवी बजाज के निजी अनुभवों की निम्न पंक्तियों में किया जा सकता है--''अब मैं अनुभव करती हूँ कि मैं कैसी भ्रान्त धारणा में फँसी हुई थी। यह धारणा पुरुषों के लिए अपमानास्पद और स्त्रियों की आत्मा को दुर्बल बनाने वाली है। दुर्बलता में लज्जा, शील, मर्यादा और सच्चरित्रता का विकास नहीं हो सकता। परदा दुर्बलता को पैदा करता है। इसलिए उसमें स्त्रियों के सद्गुणों की रक्षा नहीं हो सकती। अपने अनुभव से मैंने यह अनमोल शिक्षा ग्रहण की है कि विनय या नम्रता और झूठी लज्जा ये दोनों एक नहीं हैं। नम्रता वीरांगनाओं और वीर पुरुषों का भूषण है। झूठी लज्जा उस भूषण को दूषण बना डालती है। सच्ची लज्जा, यथार्थ शर्म या स्वाभाविक शील और व्यवहार ऑंखों में रह सकता है, परदे में नहीं।........जब परदा करती थी, तो जीवन का कोई महत्तव मालूम नहीं होता था। अब जीवन का महत्तव मालूम होता है, गृहस्थ के काम-काज में विशेष रस अनुभव होता है और दुनिया के व्यवहार को समझने की इच्छा होती है।''
ख़ैर, ज़रूरत इसी बात की है कि मुस्लिम विद्वान सोच-समझकर काम लें और स्त्रियों को परदे की गुलामी से मुक्त करें। यही युग की माँग है। परदे के बाहर आकर महिलाओं को अपनी क़ाबिलियत दिखाने का मौक़ा मिले तो पूरे समाज में ही एक आश्चर्यजनक बदलाव दिखाई देगा। स्त्रियों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर एक सुचिन्तित शिक्षा व्यवस्था की मुहिम के साथ परदा जैसी प्रथाएं हटायी जाएं तो इसका परिणाम सकारात्मक ही होगा। अन्यथा, जिस तरह के विज्ञान और तकनीकी के युग में हम जी रहे हैं; जिस तरह के खुलेपन की हवा हर तरफ़ बह रही है; उसमें परदा एक न एक दिन उठ कर ही रहेगा। जब-तब, जहाँ-तहाँ से महिलाओं के मुखर होने की घटनाएं इस बात का ही संकेत हैं। फ़तवों का असर समय के साथ समाप्त होता हुआ हम देख ही रहे हैं। हिम्मत के साथ मुखर होतीं मुसलमान स्त्रियाँ विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रभावी उपस्थिति भी दर्ज करा रही हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियों के स्वीकार के साथ मौजूदा इस्लामी क़ानून लम्बे समय तक नहीं टिकने वाले। रास्ते दो ही हैं- या तो आप बाक़ी दुनिया से सम्पर्क काट कर अलग-थलग एक रूढ़ समाज बना लें; या वर्तमान इस्लामी क़ानूनों की समयानुकूल व्याख्याएं कर लें। संभावना यही है कि बृहत्तर मुस्लिम समुदाय दूसरे रास्ते का ही राही बनेगा और कट्टरपंथी लोग हाय-तौबा मचाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगे। हाँ, इस्लाम के झंडाबरदार वक्त क़ी नज़ाकत अभी भी नहीं समझ पाए तो प्रतिक्रियाओं और पश्चिम के प्रभाव में परदा उठने का एक ख़तरा यह ज़रूर रहेगा कि कहीं परदे से बाहर आती स्त्री उच्छृंखलता का शिकार न हो जाए?